फूलों की घाटीः धरती का स्वर्ग


बचपन की किसी पुस्तक में मैंने फूलों की घाटी के बारे में पढ़ा था। यह पाठ मेरे मन में ऐसा उतरा कि जब भी ढेर सारे फूल मेरे सामने होते तो मेरे मन में एक सवाल उठता कि फूलों की घाटी कैसी होती होगी। मुझे बहुत वर्षों तक यह नहीं पता था कि वास्तव में फूलों की घाटी कहां पर है। मन में एक दबी इच्छा थी कि यदि सम्भव हो सका तो मैं फूलों की घाटी जरूर जाऊंगा और यह अवसर आया जब मैं अपने जीवन के 57वें वर्ष के पड़ाव पर था। ऋषिकेश के मेरे एक परिचित आशीष जुयाल का फोन आया कि सर आप वैली ऑफ फ्लावर्स चलेंगे क्या? आशीष ने यह भी बताया कि वे कुछ लोगों की एक टीम को लेकर वहां जा रहे हैं। मेरे मन में सन्देह था कि वैली ऑफ फ्लावर्स ही वह फूलों की घाटी है या नहीं जो मेरे बालमन से मुझे बुलाती रही है। नेट पर जांचा परखा तो पाया कि यही वह जगह है और इसे विश्व धरोहर का दर्जा भी प्राप्त है लेकिन वहां जाना बहुत आसान नहीं थाचूंकि यात्र ऋषिकेश से शुरू होनेवाली थी, इसलिये आशीष से तारीख निर्धारित करके मैं अपनी सफारी से ऋषिकेश पहुंच गया। 12 अगस्त से यात्र प्रारम्भ होनेवाली थी इसलिये 11 अगस्त की शाम तक मैं ऋषिकेश में था। आशीष अपने दोस्त तुषार के साथ मेरे होटल पर आया और हम कुछ दूर तक घूमने निकले और यात्र की तैयारियों की बात को अन्तिम रूप दिया। तय हुआ कि 12 तारीख की भोर में ही हम निकल चलेंगे। आशीष की टीम के लिये एक बस तैयार थी पर मैं बस से यात्र नहीं कर सकता था। बस में बैठकर यात्र करने पर मुझे उल्टियां होने लगती थीं। आशीष ने बोलेरो जीप नयी नयी खरीदी थी। मैंने कहा कि मुझे आगे बैठाकर ले चलना नहीं तो मैं यात्र नहीं कर सकता। रात को मैं ठीक से सो नहीं पाया और करीब 3 बजे ही आशीष का फोन आ गया कि आप सामान लेकर होटल के मुख्य द्वार पर आ जाइये। मैं जल्दी जल्दी तैयार होकर होटल के द्वार पर आ गया। फिर रास्ते में बस में कुछ समस्या आ गयीइन लोगों के वहां पहुंचने तक सात बज गये। मैं इतनी देर तक सड़क पर ही खड़ा रहा। इस अफरा तफरी से यह हुआ कि मुझे सर्दी जुकाम ने जकड़ लिया। मैं बोलेरो की आगे की सीट पर बैठा था परन्तु पचास किलोमीटर आगे जाने के बाद मैं अपने आपका असहज महसूस करने लगा। रास्ते में रुककर मैं एक चाय की दुकान पर लेट गया। दुकानदार ने ही मुझे नींबू का शरबत बनाकर पिलाया और आधे घंटे बाद मुझे लगा कि मैं ठीक हूं तो हम लोग आगे बढ़े। रास्ते में खाते पीते, पहाड़ों का सौन्दर्य निहारते, फोटोग्राफी करते हुए हम रात में आठ बजे तक गोविन्दघाट पहुंच गये। गोविन्दघाट में अलकनन्दा और लक्ष्मण गंगा नदियों का संगम है। नदी से बिल्कुल सटे कई होटल बने थे। नदी अपने प्रचण्ड रूप में थी और इतनी आवाज आ रही थी कि लगता था कान के पास ही कोई दैत्याकार मशीन चल रही है। होटल की खिड़की से भी नदी की गर्जना रात भर सुनायी देती रही। गोविन्दघाट में रात बिताकर सुबह सुबह घांघरिया की चढाई चढ़नी थी जो लगभग 17 किलोमीटर की यात्र थी। मैं रक्तचाप का मरीज था लेकिन यह बात सबसे छिपाकर मैं फूलों की घाटी जरूर जाना चाहता था। मुझे पता था कि इस बार नहीं गया तो कभी नहीं जा पाऊंगा। 17 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई करना भी मेरे लिये सम्भव नहीं था इसलिये आशीष से सलाह करके मैने एक खच्चर किराये पर लिया और उस पर बैठकर आगे चल पड़ा हालांकि बाद में समझ में आया कि खच्चर पर चढ़कर पहाड़ पर चढ़ना और उतरना दोनों खतरनाक है। मैं यात्र में इस रास्ते का आनन्द तो लेता रहा परन्तु भीतर एक डर भी था कि कहीं मैं खच्चर से गिर न जाऊं और ऐसा हो भी गया। खच्चरवाले ने मेरे कैमरे का बैग ऐसा गलत बांध दिया था कि वह सरकते सरकते खच्चर के पैरों में आ गया। खच्चर जोर जोर से उछलने लगा, मैं क्या करता। मैं कुछ देर तक उसकी पीठ पर बंधी रस्सी को पकड़े रहा। फिर हवा में उछलता हुआ नीचे आ गिरा। वहां यात्रियों ने दौड़कर मेरी सहायता की और मुझे उठाकर पास की एक दुकान में कुर्सी पर बिठाया। मुझे मेरे कैमरे के बैग की चिन्ता थी। एक कैमरा तो मैं गले में लटकाकर फोटो खींचते हुए चल रहा था। मेरा चश्मा कहीं गिरा था, कैमरा कहीं और पड़ा था तथा कैमरे का बैग तीसरी जगह गिरा पड़ा था। अब मैं इसे ईश्वर की कृपा न कहूं तो क्या कहूं कि इतनी जबरदस्त दुर्घटना के बाद भी न तो मुझे गम्भीर चोट लगी और न ही मेरे किसी भी सामान को खरोंच आयी। मैं दुकान पर चाय पीकर और खच्चर वाले से यह आश्वासन लेकर आगे बढ़ा कि आगे ऐसा नहीं होगा। खच्चर वाला कसम खा रहा था कि मैं बीस साल से खच्चर लेकर आता हूं। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। हम जिस रास्ते से घाघरिया जा रहे थे, हमारे साथ साथ लक्ष्मण गंगा नदी भी पहाड़ों से उतरती हुई मिलती जा रही थी। एक जगह इतना मनोरम दृश्य था कि मैं क्या बताऊं। लक्ष्मण गंगा नदी के उफान मारते पानी के पास ही टेबल कुर्सी लगाकर एक जलपानगृह बना दिया गया था। मैं उस जगह पर रुका, वहां चाय पी और उस दृश्य को पूरी तरह अपने कैमरे और आंखों में भरकर फिर आगे बढ़ा। अत्यन्त दुरूह डरावने रास्तों से चढ़ते उतरते करीब सात घंटे की यात्र के बाद मैं घांघरिया पहुंच गया। घांघरिया को गोविन्दधाम भी कहा जाता है। गोविन्दघाट से घाघरिया का रास्ता तय करना सबके वश की बात नहीं है। कहीं कहीं तो रास्ता यात्रियों के लिये बनाया गया था और वहां चलना आसान था परन्तु जगह जगह बेतरतीब से पड़ी छोटी बड़ी चटटानों के बीच से ही रास्ता बनाकर जाना था। इन रास्तों पर पैदल चलना फिर भी आसान था बजाय खच्चर पर बैठ कर जाने के। जहां चढ़ाई होती, खच्चरवाला बोलता, 'पीछे की तरफ झुक जाइये और जहां ढलान होती वहां वह आगे की ओर झुकने को बोलता। मैं तो ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि मुझे इस बार किसी तरह पहुंचा दो। आगे से मैं कभी खच्चर पर बैठकर ऐसी चढ़ाई पर नहीं जाऊंगा। इतना डर, इतनी दुर्दशा के बाद भी जब आसपास नजर जाती तो लगता कि ये सारे कष्ट कुछ भी नहीं हैं। क्या प्रकृति ने अपना रूप सजाया था। बाकी लोग जो पैदल आ रहे थे, वे पीछे थे। वहां एक गेस्ट हाउस में हमारे लिये कमरे आरक्षित थे। मैने अपना सामान एक कमरे में रखा और आराम करने लगा। जब सभी लोग वहां आ गये तो हम घांघरिया में टहलने निकले। एक छोटा सा कस्बा था घांघरिया जो साल में केवल तीन महीने खुला रहता था। बाकी समय भारी बर्फबारी के कारण यह कस्बा बन्द ही रहता था। जो लोग हेमकुण्ड जाने के लिये आ रहे थे, उनके लिये यहां के गुरुद्वारे में काफी अच्छी व्यवस्था की गयी थी। हमारी टीम के सभी लोग एकत्र हुए तो हमने तय किया कि अगले दिन सुबह हम फूलों की घाटी के लिये निकलेंगे। यहां के स्थानीय लोगों ने बताया कि बारिश से बचाव का उपाय करके जाना होगा क्योंकि प्रतिदिन एक बजे दोपहर में बारिश का होना निश्चित है। खैर हमने बारिश से बचने का उपाय करके सुबह ही फूलों की घाटी की यात्र प्रारम्भ कर दी। यहां पर पैदल ही जाना था क्योंकि यहां का रास्ता अत्यन्त दुरूह था और खच्चर नहीं जा सकते थे। हमसे पता नहीं क्यों आशीष ने यह झूठ बोला था कि घांघरिया से फूलों की घाटी जाने के लिये चढ़ाई नहीं चढ़नी पड़ती है। मैं जब कुछ दूर आगे तक आया तो देखा कि यहां तो अत्यन्त कठिन चढ़ाई है। मुझे आशीष पर गुस्सा आया और एक बार तो मैने सोचा कि वापस लौट जाऊं पर सामने की घाटियां जैसे मुझे बुला रही थीं। मैने अपने को दृढ़ किया और आगे की यात्र शुरू कर दी। मैं कुछ दूर तक चढ़ने के बाद दो चार मिनट के लिये रुक जाता और अपनी सांसों को सामान्य करके फिर आगे बढ़ता। रास्ते में गरजती, मचलती पहाड़ी नदी पुष्पवती मिली जिसको पार करने के लिये एक लोहे का पुल बना था। पुल पर खड़े होने पर लगता था जैसे नदी पुल को ही बहा ले जायेगी। मैं जैसे जैसे आगे बढ़ता गया, प्रकृति का सौन्दर्य अपने शिखर पर आता गया। मैं जैसे अपने रक्तचाप होने की बात को ही भूल गया। करीब तीन किलोमीटर की कठिन यात्र के बाद हम पहुंच ही गये फूलों की घाटी में। एक बड़ी सी चट्टान से फूलों की घाटी की सीमा शुरू होती है। आगे दूर तक घाटी फैली हुई थी। दो तरफ पहाड़ों की ऊंची बर्फीली चोटियां थी जो बादलों से लुका छुपी का खेल खेल रही थीं। जिधर नजर जा रही थी, तरह तरह के रंगों के, विविध रूपों के फूल खिले हुए थे। कैमरे से क्लिक क्लिक की आवाजें आ रही थीं। सब से सब मंत्रमुग्ध होकर प्रकृति को निहार रहे थे और आंखों में उतार रहे थे। मैने खूब तस्वीरें लीं और मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं वहां की ऊंची चटटान पर चढ़कर दोनों हाथ आसमान की ओर उठाते हुए चिल्ला पडूं, ऐ फूलों की घाटी, देख लो, आखिर मैं तुम्हारे पास आ ही गया हूं। अब तुम्हें सपने में भी देखेंगा तो यह याद रहेगा कि इस धरती पर मैने भी कभी अपने पैर रखे थे। सच कहूं तो लौटने का जी नहीं चाह रहा था परन्तु मुझे चेतावनी दी गयी थी कि यहां रुकने की व्यवस्था नहीं है इसलिये समय से लौट आना होगा। जैसा लोगों ने बताया था कि ठीक एक बजे बारिश शुरू हो जाती है, वैसा ही हुआ। लौटते समय बारिश बन्द ही नहीं हुई। एक पालिथिन का जैकेट था जिसमें खुद को और कैमरे को छिपाकर मैं लौट पड़ा। जाते समय की अपेक्षा लौटते समय का सौन्दर्य बदल गया था। बारिश की लगातार हो रही फुहारों ने प्रकृति को और सुन्दर बना दिया था। वापस अपने गेस्ट हाउस तक आते आते मैं थककर चूर हो चुका था। बाकी यात्री लोग लौटे, तब तक मैं बुखार से तपने लगा था। आशीष ने मेरे लिये दवा की व्यवस्था की और मैं फूलों की घाटी में डूबते उतराते सो गया। अगले दिन मुझे चिन्ता सताने लगी कि मैं इस हालत में लौटूंगा कैसे? खच्चर पर अब मैं किसी कीमत पर चढ़ने को तैयार नहीं था। फिर मुझे बताया गया कि यहां हेलिकाप्टर की सेवा है जो गोविन्दघाट से घांघरिया के लिये आता जाता है। मैने तय किया कि मैं हेलिकाप्टर से ही गोविन्दघाट तक जाऊंगा। अगले दिन मैने हेलिकाप्टर की मदद ली और करीब पांच मिनट से भी कम समय में गोविन्दघाट पहुंच गया। हेलीकाप्टर से मैने कई तस्वीरें उतारी जो मंत्रमुग्ध कर देनेवाली थीं। बाकी लोग शाम तक पहुंचे, तब तक मैं होटल में आराम करता रहा। अगले दिन फिर वापसी की तैयारी। शाम तक हम लोग ऋषिकेश पहुंचे। वहां मैने होटल में रात बितायी और अगले दिन अपनी सफारी से दिल्ली के लिये रवाना। मन में ऐसी शान्ति थी कि क्या बताऊं। बचपन का सपना जो पूरा हुआ था।  सुरेश्वर त्रिपाठी